पूर्व वैदिकालीन राजनीतिक और सामाजिक स्थिति का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
Give a brief account of the political and social conditions in early vadic?(7) मनोरंजन के साधन - युद्ध, नृत्य, रथ, दौड़, आखेट, जुआ, आर्यों के मनोरंजन के मुख्य साधन थे। नृत्य और संगीत का गाँव-गाँव में प्रचार था। नृत्य संगीत में स्त्रियों की विशेष रुचि थी । वीणा, बाँसुरी, दुन्दुभि, पाणव आदि वाद्य यंत्र बजाये जाते थे। मल्ल युद्ध मनोविनोद का प्रमुख आकर्षण रहता था । विशेष अवसरों पर बड़े समारोह का आयोजन किया जाता था जिन्हें “समन” कहा जाता था। जुआ सुपारी या बिल्लोर के पासों से खेला जाता था। शतरंज और चौपड़ भी मनोरंजन के साधन थे। युद्ध नृत्यों में दुन्दुभि, ढोल और झाँझी को काम में लेते थे ।
उत्तर वैदिक कालीन सामाजिक दशा -
उत्तर वैदिक काल उस युग को कहते हैं जिसमें ऋग्वेद के पश्चात आर्यों ने यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण आरण्यक, उपनिषद् आदि ग्रन्थों की रचना की । पूर्व वैदिक काल में आर्य सभ्यता केवल पंजाब और सिन्धु तक ही सीमित थी। उत्तर वैदिक काल में आर्यों का भौगोलिक आधिपत्य प्रायः समस्त उत्तरी भारत पर हो गया। इस काल के आते- आते आर्यों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक जीवन में व्यापक परिवर्तन हो गये । उत्तरी और मध्य भारत के अतिरिक्त उन्होंने दक्षिण भारत में भी प्रवेश करना प्रारम्भ कर दिया।(1) सामाजिक व्यवस्था -
पूर्व वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था थी किन्तु वह अत्यन्त सरल और मुक्त थी, उत्तर वैदिक काल में वर्ण-व्यवस्था जटिल और प्रगाढ़ हो गई। कार्य विभाजन के उद्देश्य को छोड़कर इस काल में वर्ण व्यवस्था ने जातिगत आधार ग्रहण कर लिया । समस्त समाज का वर्ग विभाजन, कार्य विभाजन के आधार पर न रहकर जन्म पर आधारित हो गया। धर्म की प्रक्रियाएँ जटिल हो जाने से समाज में ब्राह्मणों की प्रस्थिति में विशेष उन्नति हुई, उनका महत्त्व अधिक बढ़ गया । वे सभी वर्गों के सिरमौर माने जाने लगे क्योंकि विद्या दान का कार्य केवल उनके ही हाथों में था और धार्मिक कर्म काण्डों में वे निपुण होते थे। समाज के सभी वर्ग उनको विशेष सम्मान की दृष्टि से देखते थे। वे क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र किसी भी वर्ण की कन्या के साथ विवाह कर सकते थे। बिना उनके परामर्श के कोई भी राजा कोई विशेष कृत्य नहीं कर सकता था। ब्राह्मणों के बाद क्षत्रिय का महत्त्व बढ़ गया क्योंकि वे शौर्य और युद्ध कला में निपुणता प्राप्त होते थे। क्षत्रियों और वैश्यों में उपजातियाँ बनने लग गई थी । शूद्रों की स्थिति पूर्ववत् बनी रही और समाज में उनकी स्थिति निम्न स्तर की हो गई । वे सामाजिक और राजनैतिक अधिकारों से वंचित हो गये ।।(2) आश्रम व्यवस्था -
उत्तर वैदिक काल की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि “आश्रम की व्यवस्था” थी। आर्यों ने गहन मनन के पश्चात वैज्ञानिक आधार पर मानव जीवन को चार भागों में बांट दिया । मनुष्य की सौ वर्ष की आयु मानकर उन्होंने चार आश्रमों की रचना की(1) ब्रह्मचर्याश्रम,
| (2) गृहस्थाश्रम,
(3) वानप्रस्थाश्रम तथा ।
(4) संन्यास आश्रम ।
प्रत्येक आश्रम 25-25 वर्ष का निर्धारित किया गया । ब्रह्मचर्याश्रम मानव जीवन का प्रथम सोपान माना गया। इसमें 25 वर्ष की आयु तक व्यक्ति के लिए अविवाहित रहकर गुरुकुलों में संयमित एवं अनुशासित जीवन बिता कर विद्योपार्जन करने का प्रावधान था इस काल में वह गुरुओं के संरक्षण में रहता था और ज्ञानार्जन ही उसका मुख्य लक्ष्य रहता था । ब्रह्मचर्याश्रम का काल व्यतीत होने के पश्चात व्यक्ति का गृहस्थाश्रम प्रारम्भ होता था । मनुष्य विवाह करके परिवार बनाता था। संतानोत्पत्ति, धनार्जन, पुत्र-पुत्रियों का पालन-पोषण, धार्मिक अनुष्ठानों का सम्पादन इसी आश्रम में किया जाता था। 50 वर्ष की आयु के पश्चात् मनुष्य वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करता था। ग्रहस्थ का कार्यभार और दायित्व पुत्रों को सौंप कर वह शहर-कस्बों से दूर जंगल में आश्रम बनाकर रहता था। विद्यार्थियों को विद्यादान और गृहस्थों को सत्यपरामर्श देना उसके कर्तव्य हो जाते थे। चतुर्थ आश्रम अर्थात् संन्यास आश्रम में निरन्तर देश देशान्तरों में भ्रमण करता रहता था । ईशोपासना और आध्यात्मिक चिन्तन मनन करते हुए ही उसकी इहलीला समाप्त हो जाती थी। सांसारिक मोह ममता से छुटकारा पाकर उसे मोक्ष मिल जाती थी।
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